28 नवंबर 2013

आज फिर हो गई मैं अकेली...

आज फिर
हो गई मैं अकेली
आज मेरी सहेली
कोयल भी नहीं आई
रोज सुबह जगाती थी मुझे
अपनी मधुर, कोमल आवाज से...
जाने कहाँ गई...
रात बहुत तेज तूफान आया था
कहीं...
नहीं-नहीं मैं ऐसा कैसे सोच सकती हूँ
देखा था कल मैंने
कैसे सँभाले थी अपने बच्चों को...
पर ये क्या
पेड़ की डाली कहाँ गई
जहाँ रहता था उसका
छोटा सा परिवार...
क्या वक्त इतना निर्दयी हो सकता है?
क्या हुआ होगा उसके बच्चों का?
क्या दोष था उसका?
घण्टों हम बातें करते...
वो अपनी सुरीली बोली से
मेरा मन का सारा दर्द समेट लेती
मेरे अकेलेपन को भर देती
और मैं भी घण्टों उसके बच्चों को निहारा करती
उनके क्रिया-कलाप आँखों में भरा करती...
पर क्या हुआ होगा?
क्या वो तूफान के डर से
कहीं दूर चली गई होगी...
या फिर...
नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं सोच सकती
क्या मैं दोषी हूँ?
या कि मेरी छाया ही बुरी है?
क्या मुझे खुशियाँ देने वाला
हर बार ही
कर दिया जाएगा
मुझसे दूर...
क्या छाया भी अच्छी-बुरी होती है?
अगर नहीं
तो क्यों कहा जाता है
उसके कदम पड़े
तो घर फला-फूला...
उसके पड़े तो सब डूब गया...
क्या सच्ची होती हैं ये मान्यताएँ?
अगर नहीं
तो क्यों नहीं तोड़ पाते हम
ऐसी मान्यताओं को...
जो सिवाय दुख-दर्द के
कुछ नहीं देतीं...
बस छोड़ जाती हैं ऐसे घाव
जो कभी नहीं भरते कभी भी नहीं...


Bhawna

8 नवंबर 2013

अभिनव इमरोज में मेरी १३ छोटी-छोटी बाल-रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जिनको छोटे बच्चे बड़ी आसानी से याद कर सकते हैं अभिनव-इमरोज का धन्यवाद करते हुए आप सब लोगों के साथ शेयर करना चाहूँगी। आप भी सोचते होंगे कि कहाँ गायब रही इतने दिनों से तो बस यही कहूँगी कि-

घेरा है अँधेरों ने कुछ इस तरह से हमको
भूले हैं प्यार अपना भूले हैं हर डगर को।
























Bhawna